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Monday, May 14, 2018

प्रतिस्पर्धा से मुक्ति

प्रतिस्पर्धा   ---> संघर्ष ---> शोषण ---> युद्ध

जीवचेतना में प्रतिस्पर्धा से शुरुआत है जो युद्ध में अंत होता है.  इसके बीच में संघर्ष और शोषण है.  जीव चेतना का चौखट ही ऐसा बना है.  ऐसा मेरे निरीक्षण-परीक्षण पूर्वक समीक्षा में आया है.  बचपन से अभी तक आप इसी लाइन पर चले हैं, अब इसके बिल्कुल विकल्प स्वरूप में (मध्यस्थ दर्शन का) यह प्रस्ताव आपके सामने आया है.  इसमें सर्वशुभ के आधार पर सोच है.  जबकि प्रतिस्पर्धा वाले तरीके को स्वशुभ के आधार पर सोच माना गया है.

सर्वशुभ के आधार पर जो प्रस्ताव आया है उसके आगे प्रतिस्पर्धा वाला तरीका छोटा दिखने लगता है.  तुलनात्मक तरीके से हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं, फिर जो ज़रुरत होगा उसको हम कर ही लेंगे.

सर्वशुभ के प्रस्ताव का परीक्षण करने पर इसमें ठौर मिलने, इसके लिए काम करने की चाहत होती है.  इसमें ईर्ष्या-द्वेष बाधक है.  प्रतिस्पर्धा प्रवृत्ति इसकी विरोधी है.  सर्वशुभ में हमारा जितना यकीन बनता है प्रतिस्पर्धा वाला प्रवृत्ति उतना ढीला होता जाता है.

आप अपने को ही देखिये - ५ वर्ष पहले आप में जितना प्रतिस्पर्धा था, आज उतना नहीं है.  अब आगे चलके पूरा समझने पर प्रतिस्पर्धा भाव समाप्त हो जाएगा.  पूरा समझ में आना आवश्यक है.  आपके लक्षणों से मैं आपका मूल्यांकन करता हूँ, इसकी वास्तविकता का आप स्वयं मूल्यांकन करो.

सर्वशुभ का समझ जैसे-जैसे विकसित होता है प्रतिस्पर्धा विलय हो जाता है, उसका नामोनिशान नहीं बचता.  नामोनिशान नहीं बचता क्योंकि इसकी मौलिकता कुछ भी नहीं है.  प्रतिस्पर्धा का तौर-तरीका बदलता ही रहता है, इसलिए प्रतिस्पर्धा की परंपरा नहीं हो सकती.  आप लोग नौकरी के लिए जिस प्रतिस्पर्धा से गुजरे, २५ वर्ष पहले वैसा नहीं था, उससे १० वर्ष पहले वैसा भी नहीं था.  इतिहास आपके सामने रखा है.

प्रतिस्पर्धा के स्थान पर आत्म-विश्वास होना चाहिए.  आत्म-विश्वास ज्ञान-सम्पन्नता से आता है.  आत्मविश्वास से ही keen observation और quick decision लेना बनता है.

- श्रद्धेय नागराज जी के साथ संवाद पर आधारित (दिसंबर २००८, अमरकंटक) 

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